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भारत दालों का सबसे बड़ा उत्पादक होने के साथ, सबसे बड़ा उपभोक्ता भी है, लेकिन इसी के साथ वह दालों का सबसे बड़ा आयातक भी है और इस टैग से पीछा छुड़ाने के लिए वह कड़ा संघर्ष कर रहा है। दालें भारतीयों के आहार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, 'दाल-रोटी' और 'इडली-सांभर' से लेकर 'छोले-भटूरे' तक, सभी में दालें एक महत्वपूर्ण सामग्री के रूप में इस्तेमाल होती हैं। भारत की बहुत बड़ी आबादी शाकाहारी है और उनके लिए दालें प्रोटीन का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत हैं। अरहर और मसूर से लेकर चने तक, सभी दलहनी फसलें, बरसात पर निर्भर होती हैं और कम गुणवत्ता वाली मिट्टी में उगाई जाती हैं। दलहन फलियों के परिवार से संबंधित फसलें हैं और ये ऐसी अनोखी फसलें है, जो वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्तर ठीक कर सकती हैं। जिससे खेतों में खाद डालने के लिए बहुत कम यूरिया की आवश्यकता होती है। इससे जड़ों में राइजोबिया मिट्टी को उपजाऊ बनाने में मदद करता है, जिसकी वजह से चावल व गेहूं के फसल चक्र में, दलहन फसलों का व्यापक रूप से कम अवधि वाली अंतर-फसल किस्मों के रूप में उपयोग किया जाता है। भारत — कनाडा, म्यांमार और अफ्रीका के कुछ भागों से बड़ी मात्रा में दालों का आयात करता रहा है, पिछले वित्त वर्ष में भारत ने अपनी घरेलू आवश्यकता को पूरा करने के लिए, लगभग 20 लाख टन दालों का आयात किया था। हमारे वैज्ञानिक दलहन की कम अवधि की, अधिक उपज देने वाली और कीट प्रतिरोधी किस्मों को उपलब्ध कराने की दिशा में काम कर रहे हैं। दालें क्लाइमेट स्मार्ट फसलों के रूप में जानी जाती हैं, क्योंकि इन पौधों द्वारा प्रदान किए गए प्रति किलोग्राम प्रोटीन का कार्बन और वॉटर फुटप्रिंट, प्रोटीन के मांसाहारी स्रोतों की तुलना में काफी कम है। इसलिए दलहन को अक्सर करिश्माई फसल कहा जाता है। भारत की गुणवत्तापूर्ण प्रोटीन की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए, देश को दलहन के उत्पादन में पूरी तरह से आत्मनिर्भर बनाने के लिए इस क्षेत्र में गुणात्मक परिवर्तन बेहद जरूरी है।

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