The Green Revolution: India's Independence and Scientific Community (H)

"1943 को, भारत पर ब्रिटिश शासन के सबसे बुरे दौर में गिना जाता है, इसी साल बंगाल में अकाल पड़ा था - अनुमान है, कि इसमें 20 से 30 लाख पुरुष, महिलाएं और बच्चे, भूख व बीमारी से मारे गये । ये एक औपनिवेशिक शासन की क्रूरता का परिणाम था, और इस शासन का एकमात्र उद्देश्य था, भारत का आर्थिक शोषण करना - अंग्रेजों ने कृषि क्षेत्र में कोई निवेश नहीं किया गया, फिर चाहे वो मानव संसाधन जुटाने के लिए विश्वविद्यालयों की स्थापना हो, खाद्यान्नों और सब्जियों की बेहतर किस्मों के विकास के लिए अनुसंधान संस्थान हों, या फिर बड़े पैमाने पर कृषि बुनियादी ढांचे का विकास हो, जैसेकि बांधों से लेकर नहरों तक की सिंचाई परियोजनाओं का विकास करना। जिसके परिणामस्वरूप भारत में भूख, कुपोषण और गरीबी का बोलबाला रहा। 1947 में अंग्रेजों की विदाई तक, भारत की कृषि पर निर्भर अर्थव्यवस्था, बर्बादी के कगार पर थी - भारत खाद्यान्न का शुद्ध आयातक बन चुका था। स्वतंत्रता के बाद, सरकार ने कृषि के वैज्ञानिक विकास को प्राथमिकता दी, कृषि उत्पादन से संबंधित पारिस्थितिकी तंत्र पर भी जोर दिया गया - बड़े उर्वरक और कीटनाशक संयंत्रों की स्थापना, बहुउद्देश्यीय सिंचाई और बिजली परियोजनाओं का निर्माण और महत्वपूर्ण रूप से कृषि विश्वविद्यालयों को शुरू करने और स्थापित करने पर जोर दिया गया। 1958 में खाद्य फसलों के लिए, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान जैसे पोस्ट ग्रेजुएट स्कूल स्थापित किए गए, इसके अलावा कटक में केंद्रीय चावल अनुसंधान संस्थान और शिमला में केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान, जैसे महत्वपूर्ण नए कृषि अनुसंधान संस्थान स्थापित किए गये। ये कुछ ऐसे कदम थे, जो भारत को हरित क्रांति के मार्ग पर ले गए। विज्ञान से आत्मनिर्भर भारत की इस विशेष श्रृंखला में, हम भारत की हरित क्रांति पर करीब से नज़र डालेंगे - एक ऐसी क्रांति, जिसने हमें खाद्यान्नों के, एक शुद्ध आयातक राष्ट्र से, अतिरिक्त अन्न उपजाने वाले राष्ट्र में बदल दिया। देखिए, भारत की इस कृषि परिवर्तन यात्रा की दिलचस्प कहानी, केवल इंडिया साइंस पर।"

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